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पहलवान ने कुश्ती खेलकर चुकाया ओलिंपिक जाने का कर्ज: जब भारतीय दल ने हिटलर को नहीं किया सैल्यूट; ओलिंपिक में भारत का सफर


24 फरवरी 1988। मुंबई के दो लड़कों ने एक इंटर-स्कूल क्रिकेट टूर्नामेंट में 664 रन की पार्टनरशिप कर वर्ल्ड रिकार्ड बना दिया। यह कारनामा 14 साल के सचिन तेंदुलकर और 16 साल के विनोद कांबली ने किया था। दोनों ने इस कीर्तिमान से दुनियाभर के अखबारों में जगह बन

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सचिन और कांबली जैसे वर्ल्ड क्लास खिलाड़ियों को पहचान दिलाने वाले इस इंटर स्कूल टूर्नामेंट का नाम पहले हैरिस शील्ड हुआ करता था। इस टूर्नामेंट को साल 1896 में सर दोराबजी टाटा ने शुरू किया था। इसी हैरिस शील्ड ट्रॉफी और दोराबजी टाटा ने भारतीय खिलाड़ियों के लिए ओलिंपिक के दरवाजे खोले। लेकिन कैसे?

‘ओलिंपिक के किस्से’ सीरीज के आखिरी एपिसोड में जानेंगे ओलिंपिक में भारत की एंट्री कैसे हुई और भारत ने कब-कब यादगार परफॉर्मेंस दी…

1919 की बात है। ओलिंपिक में ब्रिटिश गवर्नमेंट से अलग भारत की एक स्वतंत्र टीम भेजने की बात चल रही थी। लेकिन ओलिंपिक के लिए खिलाड़ी कैसे तैयार होंगे, ब्रिटिश गवर्नमेंट से इसकी परमिशन कौन लेगा। इन सवालों के जवाब खोजने बाकी थे।

1919 की अप्रैल में किसी तारीख को इसी सिलसिले में पुणे के डेक्कन जिमखाना में एक मीटिंग हुई। मीटिंग में टाटा ग्रुप के चेयरमैन सर दोराबजी टाटा को बतौर चीफ गेस्ट आमंत्रित किया गया। उन्हें मीटिंग में बुलाने वाले और ओलिंपिक का सपना देख रहे लोग जानते थे कि टाटा ही भारत के ओलिंपिक के मुश्किल सफर को आसान कर सकते हैं। क्योंकि वे इससे पहले हैरिस शील्ड टूर्नामेंट के जरिए मुंबई के स्कूल और कॉलेज में क्रिकेट को लोकप्रिय बना चुके थे।

दोराबजी टाटा इंग्लैंड के कॉलेजों में खेलों को दी जाने वाली प्राथमिकता से प्रभावित थे। उन्होंने भारत लौटकर स्कूल और कॉलेज स्तर पर खेल का विस्तार किया।

टाटा ने मुंबई के गवर्नर सर लॉयड जॉर्ज के सामने 1920 के एंटवर्प ओलिंपिक में भारत का दल भेजने का प्रस्ताव रखा। भारत को ओलिंपिक में हिस्सा लेने के लिए ब्रिटिश ओलिंपिक कमेटी से समर्थन मांगा गया।

दोनों के बीच कई दौर की बैठकों के बाद आखिरकार गवर्नर मदद के लिए तैयार हो गए। इंटरनेशनल ओलिंपिक कमेटी (IOC) ने भी भारत को ओलिंपिक में भाग लेने की अनुमति दे दी। यहीं से इंडियन ओलिंपिक कमेटी की नींव पड़नी शुरू हुई और भारतीय दल ने ओलिंपिक में भाग लेने की तैयारी शुरू की।

पूर्व क्रिकेटर ने ओलिंपिक एथलीट्स के पहले बैच का चयन किया
आजादी से पहले भी भारत में क्रिकेट काफी लोकप्रिय खेल था। वे खेल जगत से जुड़े हुए थे और विदेशों में जाकर भी खेलते थे। IOC की परमिशन के बाद जब ओलिंपिक में भारत के खिलाड़ियों की चयन की बारी आई तो पूर्व भारतीय क्रिकेटर और एक रियासत के राजा कर्नल कुमार सर रणजीत सिंह आगे आए।

ओलिंपिक का ट्रायल देने ज्यादातर लोग ग्रामीण और किसान वर्ग से पहुंचे थे। स्थिति ये थी कि उनके पास पहनने के लिए जूते तक नहीं थे। ओलिंपिक भारत में खासा लोकप्रिय नहीं था ऐसे में उसके नियमों के बारे में कम ही लोग जानते थे।

ट्रायल के दौरान इन खिलाड़ियों को 1920 ओलिंपिक के लिए चुना गया। ज्यादातर खिलाड़ियों को खेल के सही नियम नहीं मालूम थे।

ट्रायल के दौरान इन खिलाड़ियों को 1920 ओलिंपिक के लिए चुना गया। ज्यादातर खिलाड़ियों को खेल के सही नियम नहीं मालूम थे।

जब सर रणजीत सिंह ने एक खिलाड़ी से जाकर पूछा- क्या आपको पता है कि ओलिंपिक में 100 मीटर रेस में क्वालिफाई करने के लिए टाइम लिमिट क्या है? जवाब आया- एक से दो मिनट। यह सुनकर सर रणजीत सिंह हैरान हो गए। उन्होंने बताया कि ओलिंपिक में बात मिनटों की नहीं, सेकंड और मिलीसेकंड की होती है।

हालांकि, कुछ एथलीट ऐसे भी थे जो उस समय ओलिंपिक में क्वालीफाई करने के लिए निर्धारित समय को पूरा कर रहे थे। इनमें से दोराबजी टाटा और रंजीत सिंह ने तीन खिलाड़ियों का चयन किया। इसके अलावा कुछ और खिलाड़ी भी टीम में चुने गए।

खिलाड़ियों के खर्च के लिए अखबार में छपा चंदा जुटाने का विज्ञापन
भारत का पहला ओलिंपिक दल तैयार हो चुका था। लेकिन इन्हें 1920 के एंटवर्प ओलिंपिक तक भेजने के लिए 35 हजार रुपए की जरूरत थी। ब्रिटिश सरकार ने करीब छह हजार रुपए की मदद की थी। लेकिन अभी भी बड़ी राशि की जरूरत थी। ऐसे में जिमखाना ने अखबार ‘द स्टैट्समैन’ में एक विज्ञापन छपवाया।

इसमें लोगों से ओलिंपिक टीम की जरूरत को पूरा करने के लिए पैसों की मांग की गई थी। लेकिन अपील का खास असर नहीं हुआ। इसके बाद दोराबजी टाटा ने निजी खर्चे पर तीन खिलाड़ियों को एंटवर्प भेजा। बाकी खिलाड़ियों के लिए सर रणजीत सिंह, सरकार और जनता से मदद ली गई।

1920 ओलंपिक के लिए रवाना होने से पहले फोटोशूट के दौरान भारतीय टीम। भारत ने दो खेलों में 6 खिलाड़ियों का दल भेजा था।

1920 ओलंपिक के लिए रवाना होने से पहले फोटोशूट के दौरान भारतीय टीम। भारत ने दो खेलों में 6 खिलाड़ियों का दल भेजा था।

1920 के ओलिंपिक में भारत की तरफ से चार एथलीट और दो पहलवानों ने भाग लिया। बंगाल के पुरमा बनर्जी ओपनिंग सेरेमनी में भारतीय दल के ध्वजवाहक बने। हालांकि, एंटवर्प में किसी भी भारतीय खिलाड़ी का प्रदर्शन खास नहीं रहा। लेकिन इसके बाद भी इन आयोजन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि इसने आम लोगों तक खेलों के लिए उत्साह जगा दिया।

इसी का असर था कि 1924 ओलिंपिक के लिए देश के कोने-कोने से एथलीट आने शुरू हो गए। इस बार पहले राज्य स्तर पर खिलाड़ियों का चयन हुआ। उसके बाद फाइनल सेलेक्शन के लिए ‘दिल्ली ओलिंपिक’ का आयोजन किया गया, जिसकी मदद से ओलिंपिक के लिए भारतीय दल को चुना गया। इसी दौरान ऑल इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन का गठन हुआ। जिसके अध्यक्ष दोराबजी टाटा बने।

जहां 1920 में पैसा मुश्किल से जुटा था, वहीं इस बार भारतीय टीम के लिए राज्यों और सेना ने मदद भेजी। पंजाब ओलिंपिक कमेटी ने सबसे ज्यादा ढाई हजार रुपए का चंदा दिया, जिसमें 1,114 रुपए पंजाब के 47 स्कूल से जमा किए गए। बिहार, यूपी, उड़ीसा और मद्रास ने दो-दो हजार रुपए का चंदा दिया। मध्य प्रांत ने डेढ़ हजार रुपए भेजे।

हॉकी ने दिलाया पहला ओलिंपिक गोल्ड
1924 ओलिंपिक में भारत ने 8 खिलाड़ियों का दल भेजा था। एक बार फिर भारतीय टीम को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। इस ओलिंपिक के अगले साल ही 1925 में भारत में इंडियन हॉकी फेडरेशन का गठन किया गया था। उस दौरान क्रिकेट और फुटबॉल की तरह हॉकी भी देश में काफी पॉपुलर था।

1926 में भारतीय हॉकी टीम ने न्यूजीलैंड का दौरा किया। टीम ने कीवी के खिलाफ 21 मैच खेले, जिसमें 18 में जीत हासिल की, 2 ड्रॉ रहे और सिर्फ एक मैच में हार मिली थी। इसी टूर पर दुनिया ने पहली बार मेजर ध्यानचंद का जौहर देखा था। भारत के प्रदर्शन को देखते हुए अगले साल इंडियन हॉकी फेडरेशन को इंटरनेशनल फेडरेशन का मेंबर बना लिया गया। टीम को 1928 के एम्स्टर्डम ओलिंपिक का टिकट भी मिल गया।

1928 ओलिंपिक के लिए जयपाल सिंह मुंडा को टीम का कप्तान चुना गया। रांची के आदिवासी समुदाय से आने वाले जयपाल मुंडा ऑक्सफोर्ड के बैलिओल कॉलेज से पढ़ाई कर रहे थे। वह ब्रिटेन में पढ़ने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की हॉकी टीम के कप्तान भी थे।

1928 एम्स्टर्डम ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम।

1928 एम्स्टर्डम ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम।

एम्सटर्डम ओलिंपिक के लिए 16 खिलाड़ियों को चुना गया। इनमें एसएम यूसुफ और पटौदी सीनियर का भी नाम शामिल था। कप्तान और ये दोनों खिलाड़ी पहले से ही ब्रिटेन में थे। बाकी बचे 9 एंग्लो-इंडियन समेत कुल 13 खिलाड़ियों को लंदन होते हुए एम्सटर्डम पहुंचना था।

लंदन के लिए रवाना होने से कुछ दिनों पहले फेडरेशन के सामने एक बड़ी चुनौती आई। फंड कम होने के कारण फेडरेशन 11 प्लेयर को ही ओलिंपिक के लिए भेज सकती थी। बंगाल के शौकत अली और मध्य प्रांत के आरए नॉरिस को बाहर होना पड़ सकता था। दोनों को टीम के साथ लंदन भेजने के लिए 15 हजार रूपए चाहिए थे। तब बंगाल के खेल प्रेमियों ने फेडरेशन को चंदा दिया और 13 प्लेयर की टीम लंदन पहुंची।

हॉकी के जादूगर के नाम से मशहूर मेजर ध्यानचंद।

हॉकी के जादूगर के नाम से मशहूर मेजर ध्यानचंद।

फाइनल मैच के पहले टीम छोड़कर चले गए हॉकी टीम के कप्तान
30 मार्च 1928 को टीम एम्सटर्डम पहुंची। टूर्नामेंट में भारत ने ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, डेनमार्क, और स्विट्जरलैंड को हराकर और नॉकआउट में जगह बनाई। लेकिन फाइनल से पहले भारतीय कप्तान जयपाल सिंह मुंडा ने टीम का साथ छोड़ दिया। इसके बावजूद भारत ने फाइनल में नीदरलैंड को 3-0 से हराकर पहला ओलिंपिक गोल्ड मेडल अपने नाम किया।

जयपाल मुंडा ने बीच टूर्नामेंट में टीम क्यों छोड़ा इसपर उन्होंने कभी कुछ बताया नहीं। हालांकि, उनके टीम छोड़ने के कारणों को लेकर कुछ थ्योरी दी जाती है। एक थ्योरी के मुताबिक उस समय टीम के ज्यादातर खिलाड़ी व्हाइट थे, ऐसे में उन्हें ये मंजूर नहीं था कि कोई भारतीय मूल निवासी उनका नेतृत्व करे। दूसरी थ्योरी दी जाती है कि टीम में ज्यादातर खिलाड़ी आर्मी बैकग्राउंड के थे, कोई बाहरी टीम का कप्तानी करे यह उन्हें पसंद नहीं आया।

बर्लिन ओलिंपिक भारतीय टीम ने हिटलर को नहीं किया सैल्यूट
1928 में एम्स्टर्डम और 1932 में लॉस एंजेलिस में गोल्ड मेडल जीतने के बाद बर्लिन ओलिंपिक भारतीय हॉकी टीम का अगला पड़ाव था। बर्लिन ओलिंपिक हिटलर और नाजीवाद के लिए कितना बदनाम थे, ये आप सीरीज के पिछले एपिसोड्स में पढ़ चुके होंगे।

1 अगस्त 1936 को बर्लिन के ओलिंपिक स्टेडियम में ओपनिंग सेरेमनी चल रही थी। जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर और हजारों की भीड़ स्टेडियम में मौजूद थी। खिलाड़ियों को आर्मी ट्रक में स्टेडियम तक लाया गया।

हॉकी टीम के कप्तान मेजर ध्यानचंद्र भारतीय दल के ध्वज वाहक थे। सभी टीमें जब भी मंच के सामने से गुजर रहीं थी तो हिटलर को सैल्यूट कर रहीं थी। लेकिन सेरेमनी में शामिल दो टीमों ने ऐसा नहीं किया। वे टीमें अमेरिका और भारत की थीं। उस दौर का भारत नाजीवाद और हिटलर के विरोधी पक्ष में खड़ा था।

1936 के बर्लिन ओलिंपिक के लिए भारतीय दल। भारत ने 4 खेलों में 27 खिलाड़ियों का दल भेजा था।

1936 के बर्लिन ओलिंपिक के लिए भारतीय दल। भारत ने 4 खेलों में 27 खिलाड़ियों का दल भेजा था।

यह बात हिटलर और जर्मनी के लोगों को खास पसंद नहीं आई। लेकिन इस लड़ाई में नया चैप्टर तब जुड़ा जब हॉकी के फाइनल में भारत ने जर्मनी को उसी के घर में 8 के मुकाबले 1 गोल से हरा दिया।

हिटलर मेजर ध्यानचंद के खेल से प्रभावित हुए और उन्हें मिलने बुलाया। जब ध्यानचंद मुलाकात के लिए पहुंचे तो हिटलर ने उन्हें जर्मनी के लिए हॉकी खेलने के बदले नाजी सेना में बड़ा पद भी ऑफर किया। लेकिन मेजर ध्यानचंद ने इसे ठुकरा दिया।

इंडियन हॉकी टीम ने 1928 से लेकर 1952 तक ओलिंपिक में लगातार 6 गोल्ड मेडल जीते। इनमें ब्रिटेन को हराकर आजादी के बाद जीता गया पहला गोल्ड भी शामिल था। 1964 और 1980 ओलिंपिक में भी भारत ने गोल्ड मेडल अपने नाम किया।

भारत हर ओलिंपिक में अपने खिलाड़ी भेज रहा था। लेकिन हॉकी टीम के अलावा और कोई भी पोडियम तक का सफर तय नहीं कर पा रहा था। हालांकि आजादी से पहले भारत के लिए नॉर्मन प्रिचर्ड दो सिल्वर मेडल जीत चुके थे। लेकिन उन्हें इंग्लैंड ने अपने दल का हिस्सा बनाया था। इसलिए इंग्लैंड भी इस मेडल पर अपना दावा जताता है।

पहले इंडिविजुअल मेडलिस्ट ने कुश्ती खेलकर चुकाया ओलिंपिक वाला कर्ज
1952 के हेलंसिकी ओलिंपिक में भारत को पहला इंडिविजुअल मेडलिस्ट मिला। लेकिन इसकी कहानी भारत की आजादी के आस-पास शुरू हुई। महाराष्ट्र के राजा राम कॉलेज में खेलकूद प्रतियोगिता चल रही थी। इसी के कुश्ती इवेंट में सतारा जिले के गोलेश्वर से आने वाले खशाबा दादासाहेब जाधव उर्फ केडी भी हिस्सा लेना चाहते थे।

लेकिन उनकी 5 फीट 5 इंच की हाइट और दुबला पतला शरीर देखकर आयोजकों ने उन्हें कुश्ती में नहीं उतरने दिया। इसके बाद केडी कॉलेज के प्रिसिंपल से भिड़ गए। कुछ देर बाद प्रिंसिपल ने उन्हें खेलने की अनुमति दे दी और केडी कई लंबे चौड़े पहलवानों को पटकते हुए हीरो बन गए।

1952 के हेलसिंकी ओलिंपिक में 5 मुकाबले लगातार जीतने के बाद केडी जाधव को छठे मुकाबले में जापान के शोहाची इशी से हार का सामना करना पड़ा।

1952 के हेलसिंकी ओलिंपिक में 5 मुकाबले लगातार जीतने के बाद केडी जाधव को छठे मुकाबले में जापान के शोहाची इशी से हार का सामना करना पड़ा।

ऐसी ही एक कॉम्पिटिशन में केडी पर कोल्हापुर के राजा की नजर पड़ी, तो उन्होंने केडी को ओलिंपिक भेजना का फैसला करते हुए उन्हें फंड मुहैया कराकर 1948 के लंदन ओलिंपिक भेजा। मिट्टी में खेलने वाले केडी मैट पर तालमेल नहीं बिठा सके फिर भी उन्होंने प्रतियोगिता को अंतिम 6 में फिनिश किया।

1952 में हेलसिंकी जाने वाले पहलवानों की लिस्ट में केडी का नाम नहीं आया। इसके बाद उन्होंने ट्रायल्स में नेशनल चैंपियन निरंजन दास को तीन बार हराकार और पटियाला के राजा की मदद से ओलिंपिक का टिकट हासिल किया। लेकिन ओलिंपिक की फाइट से पहले उन्हें मैट के बाहर एक और लड़ाई लड़नी थी, वो थी पैसों के इंतजाम की लड़ाई।

पैसों के लिए लोगों से मदद की गुहार लगाई। उनके गांव के हर व्यक्ति ने अपने सामर्थ्य से उन्हें पैसे दिए। उनके स्कूल के प्रिंसिपल ने अपने घर गिरवी रखा उस दौर में सात हजार रूपए दिए। केडी हेलसिंकी पहुंचे।

उन्होंने दिग्गजों को पछाड़कर पहला दूसरा, तीसरा और फिर चौथा राउंड पार कर लिया। लेकिन थका देने वाले चौथे राउंड के ठीक बाद उन्हें पांचवे राउंड के लिए उतरना पड़ा, जहां उन्हें हार मिली। लेकिन हार के बाद भी ब्रॉन्ज मेडल के साथ केडी भारत के पहले खिलाड़ी थे जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से ओलिंपिक मेडल जीता था।

मेडल सेरेमनी के दौरान तीसरे पायदान पर केडी जाधव। जापान के शोहाची इशी ने गोल्ड और रूसी पहलवान राशिद मम्मादबियोव ने सिल्वर मेडल जीता।

मेडल सेरेमनी के दौरान तीसरे पायदान पर केडी जाधव। जापान के शोहाची इशी ने गोल्ड और रूसी पहलवान राशिद मम्मादबियोव ने सिल्वर मेडल जीता।

केडी जीत के बाद घर लौटे तो स्टेशन पर उनका स्वागत करने इतने लोग पहुंचे कि स्टेशन से घर तक का 15 मिनट का रास्ता 7 घंटे में पूरा हो सका। इसके बाद उन्होंने जगह-जगह कुश्ती के मैच खेल कर ओलिंपिक के लिए लोगों से उधार लिए पैसे चुकाए। 1955 में उन्हें महाराष्ट्र पुलिस में सब इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गई। हालांकि इसके बाद वे घुटने की चोट के कारण किसी भी ओलिंपिक में नहीं उतर सके।

88 साल के इंतजार के बाद मिला पहला इंडिविजुअल गोल्ड मेडल
हॉकी में 8 गोल्ड, एक सिल्वर और 3 ब्रॉन्ज। 1996 के ओलिंपिक के पहले तक भारत का ओलिंपिक में यही प्रदर्शन था। इस दौरान फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा जैसे कई दिग्गज भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके थे, लेकिन वे हर बार मेडल से दूर रह गए। साल 1996 के अटलांटा ओलिंपिक में टेनिस स्टार लिएंडर पेस ने ब्रॉन्ज मेडल जीता और 1980 के बाद मेडल का 16 साल का सूखा खत्म किया। कर्णम मल्लेश्वरी ने 2000 के सिडनी ओलिंपिक में कांसे पर अपना नाम लिखवाया, तो वहीं राज्यवर्धन राठौर ने 2004 के एथेंस ओलिंपिक में चांदी पर निशाना साधा।

भारत की आजादी की 61वीं वर्षगांठ से ठीक 4 दिन पहले 11 अगस्त 2008 को अभिनव बिंद्रा ने बीजिंग ओलिंपिक में शूटिंग में गोल्ड मेडल जीता। 1920 से ओलिंपिक खेल रहे भारत के लिए यह पहला मौका था, जब किसी खिलाड़ी ने अकेले गोल्ड मेडल जीता था। बिंद्रा के साथ इसी ओलिंपिक में बॉक्सिंग में बिजेंदर सिंह और रेसलिंग में सुशील कुमार ने ब्रॉन्ज मेडल जीता था। यह भारत का ओलिंपिक इतिहास में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था।

अभिनव बिंद्रा ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने थे। 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में मेडल जीता था।

अभिनव बिंद्रा ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने थे। 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में मेडल जीता था।

भारत ने 2012 लंदन ओलिंपिक में 2 सिल्वर, 4 ब्रॉन्ज और 2016 के रियो ओंलिपिक में एक सिल्वर, एक ब्रॉन्ज जीता। टोक्यो में हुआ पिछला ओलिंपिक भारत के लिए प्रदर्शन के लिहाज से सबसे सफल ओलिंपिक रहा। टोक्यो में भारत ने 2 रजत, 4 कांस्य और एक सोने का तमगा जीता। नीरज चोपड़ा ने स्वर्णिम भाला फेंकते हुए भारत को गोल्ड मेडल जिताया और ये कारनामा करने वाले भारत के सौ साल के ओलिंपिक इतिहास में पहले एथलीट बने।

  • बुक रेफरेंस –
  • Olympics The India Story – Boria Majumadar and Nalin Mehta



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